मानचित्र पठन का अध्ययन
सर्वे ऑफ इण्डिया, देहरादून राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मानचित्र प्रकाशित करने वाला भारत का एकमात्र अधिकृत विभाग है, जो भारत के समीपवर्ती तथा अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र प्रकाशित करता है। भारत के मानचित्र 1:1000000 के मापक जो लगभग 16 मील के सन्निकट होता है, तैयार किये गये है। इन मानचित्रों में 4 अक्षांश और 4 देशान्तर के मध्य का वर्ग प्रदर्शित किया गया है।
- मानचित्र (Maps) की परिभाषा
- मानचित्र के प्रकार
- मानचित्र में पाँच डी (D)
- (क) विवरण (Description) –
- (ख) दिशा ज्ञान (Direction) –
- (ग) दूरी (Distance)-
- (घ) प्रतीक चिन्ह (Demarcation)-
- (ड) नामांकन (Designation) –
- Map Setting :–
- रुढ़ चिन्ह में विविध रंग
- वस्तु की कोणिक दूरी (Bearing)
- स्काउट में मापनी (Scale)
- मापनी के प्रकार
- मानचित्र बनाने की त्रिकोणी विधि
- जी. पी. एस. द्वारा मानचित्र मार्ग का अनुसरण करना/ वैश्विक स्थितिक व्यवस्था (Global Positioning System)
- कम्पास व मानचित्र
- कम्पास और मानचित्र की जानकारी व सोलह दिशाओं का ज्ञान
- तारा मण्डलों द्वारा उत्तर दिशा ज्ञात करना-
- 1.सप्तर्षि मण्डल ( Great Bear )
- 2. लघु सप्त ऋषि मण्डल ( Little Bear )
- 3. पांच पाण्डव मण्डल या काश्पीय मण्डल ( कैसोपिया )
- उत्तर दिशा की जानकारी (Finding the North)

मानचित्र (Maps) की परिभाषा
“किसी चौरस सतह पर समस्त पृथ्वी अथवा उसके किसी अंश का सानुपातिक चित्रण मानचित्र कहलाता है।”
“A Map is a proportionate representation of the whole or part of earth’s surfece on a flat sheet of paper”
Cartography- (मानचित्र विज्ञान)-
मानचित्रों एवं अन्य भौगोलिक उपकरणों की रचना संबंधी ज्ञान देने वाली विद्या को मानचित्र विज्ञान कहते हैं।
मानचित्र बनाने का विकास
मानचित्र बनाना, लिखना सीखने से 4000 वर्ष पहले प्रारंभ हुआ, जब मनुष्य जंगली अवस्था में था उस समय संकेतों चिहों द्वारा मार्ग दर्शन करता था। रेड इण्डियन ऐंजटिक तथा एस्कीमों ने सर्वाधिक मानचित्र बनाये।
ग्रीक के निवासी आधुनिक मानचित्र के निर्माता कहलाते हैं। इनमें यूरेटिस्थनीज तथा टॉलमी मुख्य थे ।
मध्य युग में 15वीं शताब्दी में व्यापार, यातायात, उद्योग आदि के विकास से मानचित्र कला की उन्नति हुई। स्कूल स्थापित किये गये-जिसमें 1. एटलियन, 2-फ्रेंच, 3-डच, 4- इंगलिश, 5-जर्मन प्रमुख थे।
भारत में मानचित्र कला का विकास 5000 वर्ष पुराना माना जाता है। भारतीय व्यापारी नौकाओं तथा जलयानों द्वारा दूसरे देशों में जाते थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में एक सर्वेक्षण किया गया था। अकबर के शासन काल में राजा टोडरमल ने भूमि की नाप की थी।
मानचित्र के प्रकार
मानचित्र निम्न प्रकार के होते हैं-
1. अचल सम्पत्ति के मानचित्र (Cadestral) -इसमें मकान, बाग, खेत, जागीर आदि आते हैं। ये मानचित्र -3″ = 1 मील के मापक पर बनाये जाते हैं।
2. धरातलीय विवरण मानचित्र (Topographical Map) -इसमें धरातल का विवरण जैसे-पर्वत, नदियाँ, झीलें, कुएँ, तालाब, मन्दिर, झरणें आदि दर्शाये जाते हैं। ये मानचित्र 1″ = 1 मील या कम से मापक पर दर्शाये जाते हैं।
3. दीवार मानचित्र (Wall Maps) -इसके अंतर्गत विश्व अथवा उसके किसी भूभाग को दर्शाया जाता है। ये 1″ = 16 मील के मापक पर बनते हैं।
मानचित्र में पाँच डी (D)
मानचित्र में निम्नलिखित पाँच (Five D’s) होते हैं
(क) विवरण (Description) –
मानचित्र पढ़ने व बनाने में निम्नलिखितआवश्यक है-
(1) पत्रक का नाम (Name of the Sheet)
(ii) पैमाना (Scale)
(iii) उत्तर दिशा (North)
(iv) उच्चावचन (Altitude)
(v) परिचय संख्या (Reference Number)
(vi) प्रकाशन एवं भूमान तिथि (Date of publication and Surveying)
(vii) aielach fet (Symbols/Convention signs)
(viii) अक्षांश और देशांतर रेखाएं (Longitude and Latitude)
(ix) क्षेत्रफल (Area Covered)
(ख) दिशा ज्ञान (Direction) –
मानचित्र के ऊपरी दाहिने शीर्ष पर तीर द्वारा उत्तर दिशा को दर्शाया जाता है तथा साथ ही उत्तर दिशा से चुम्बकीय उत्तर का अन्तर भी।
(ग) दूरी (Distance)-
मानचित्र के नीचे के मध्य भाग पर पैमाना (Scale) दर्शाया जाता है जिससे दो स्थानों की दूरी ज्ञात की जा सकती है।
(घ) प्रतीक चिन्ह (Demarcation)-
परंपरागत सांस्कृतिक चिहों, रंगों एवं अन्य सांकेतिक चिन्हों से मानव निर्मित दृश्यावलियों को दर्शाया जाता है।
(ड) नामांकन (Designation) –
मानचित्र में नदियों, शहरों, झीलों, महाद्वीपों, महासागरों, राष्ट्रों, पर्वतों,खाड़ियों, द्वीपों आदि की जानकारी नामांकित कर दी जाती है।
Map Setting :–
मानचित्र की उत्तर-दक्षिण दिशा को भूमि से मिलान करना मानचित्र-स्थापन कहलाता हैं। मानचित्र पर बनी किसी स्थायी वस्तु से भी Map Setting की जा सकती है। जहां आप खड़े हों वहां से वस्तु की ओर को मानचित्र पर रेखा खींच लें। अब उस रेखा को वास्तविक वस्तु और मानचित्र की वस्तु की सीध में घुमाकर सही कर लें। मानचित्र की किसी समान्तर रेखा और धरातल की उस वस्तु की समान्तर रेखा से मिलान कर भी Map Setting की जा सकती है जैसे रेल-पथ, सड़क या पुल से। कम्पास से तो Map Setting करना आसान है। मानचित्र को उत्तर दिशा के ऊपर कम्पास की उत्तर दिशा-प्रदर्शित करने वाली सुई को रखकर इसे सेट (Set) किया जा सकता है।
पैमाना
एक वर्ग में इस प्रकार 4×4-15 वर्ग बनाये गये हैं जिसमें एक वर्ग 1°x1° को प्रदर्शित करता है। प्रत्येक क्षेत्र का मानचित्र एक पत्रक कहलाता है। इन पत्रकों को संख्याबद्ध कर दिया गया है।
भारत तथा सीमावर्ती देशों के इस क्रम का विस्तार 4° उत्तरी अक्षांश से लेकर 40° उत्तरी अक्षाश तथा 44° पूर्वी देशान्तर से लेकर 124° पूर्वी देशान्तर तक फैला है। इस प्रकार इस क्रम के कुल पत्रकों की संख्या 136 है।
40×40 वाले वर्ग बड़े क्षेत्रों को प्रकट करते हैं जिनमें अधिक विवरण नहीं दर्शाया जा सकता है। इसलिये प्रत्येक वर्ग को पुनः 16 भागों (4°x4°) में विभक्त कर दिया गया है, जिसका एक वर्ग 1°x] है इन्हें 1° पत्रक भी कहा जाता है इनका मापक 1’=4 मील होता है। 1 के पत्रक को पुनः चार समान भागों में बांटकर 16 वर्ग बना दिये गये हैं, जिनका मापक 15’x15′ अथवा 1’=1 मील प्रदर्शित करता हैं। इनमें अधिक विवरण प्रदर्शित किया जा सकता है। प्रत्येक वर्ग को A से P तक तथा 15’x15′ के वर्ग को 1 से 16 तक की संख्या दे दी गई है।
उक्त पत्रकों को अब मील के स्थान पर किलोमीटर में प्रदर्शित किया जाता है।
सम्पूर्ण राष्ट्र को बड़े वर्गों जिसकी भुजा 500 कि. मी. होती है बांटा जाता है। इन 500 कि. मी. की भुजाओं को पुनः 5 भागों में बांट कर 255 वर्ग बनाये गये है जिनका प्रत्येक वर्ग 100 कि. मी. की भुजा का बन जाता है। 100 कि. मी. की इस भुजा को पुनः दस भागों में विभक्त कर एक वर्ग 10 कि. मी. की भुजा प्रकट करता हैं। पुनः इस भुजा का दशांश 1 कि. मी. को प्रदर्शित करता हैं।
मानचित्र पठन में निम्नलिखित बातों का अध्ययन किया जाता है:-
1. विस्तार – अक्षांश और देशान्तरीय फैलाव।
2.मापक – इंच : मील या से. मी. : कि. मी.।
3. क्षेत्रफल
4. धरातल का स्वरूप – नदियों के बहाव को समोच्च रेखाओं से ज्ञात किया जा सकता है।
5. वनस्पति – परम्परागत चिह्नों के अध्ययन से।
6. यातायात के साधन – रेलपथ, सड़क, बैलगाड़ी, ऊँट पथ आदि से।
7. जनसंख्या।
8. व्यवसाय व उद्यम।
9. आर्थिक जीवन व प्रसिद्ध नगर।
मानचित्रों में विभिन्न विवरण एवं सूचनाएं पूर्व निश्चित् चिह्नों के द्वारा प्रदर्शित की जाती है। विश्वभर में इन चिन्हों को अपनाने की एक परम्परा चली आ रही है। अतः इन्हें परम्परागत चिह्न कहा जाता है। इन चिन्हों को रूढ़ या अभिसामयिक चिह भी कहा जाता है।
इन चिह्नों को प्रत्येक देश का सर्वे विभाग प्रमाणित करता है।

रुढ़ चिन्ह में विविध रंग
भारतीय सर्वे ऑफ इण्डिया ने प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक दृश्य प्रदर्शित करने के लिये निम्नाकिंत रंगों को मान्यता प्रदान की है:-
- लाल रंग- भवन व सड़कों के प्रदर्शन के लिये।
- पीला रंग- कृषि क्षेत्रों को दिखाने के लिये।
- हरा रंग- वनस्पति, वन एवं बागों के लिये।
- नीला रंग- तालाब, झील, नदी तथा जलाशयों के लिये।
- कत्थई रंग- समोच्च रेखाओं के लिये।
- भूरा रंग– पर्वत छाया के लिये।
समोच्च रेखायें
मानचित्रों पर समुद्र तल से समान ऊँचाई वाले स्थानों को मिलाने वाली कल्पित रेखाओं को समोच्च रेखायें कहते हैं ।
इनकी विशेषताएँ निम्नवत् हैं:-
‘ये रेखायें समान ऊँचाई वाले स्थानों को परस्पर जोड़ती है।
एक समोच्च रेखा दूसरी को कभी नहीं काटती।
गोलाकार समोच्च रेखायें पर्वत या खड्ड को प्रदर्शित करती हैं।
” समोच्च रेखायें पूर्ण होती है खण्ड नहीं।
*ये रेखायें किसी स्थान का वास्तविक ढाल बताती है।
* ऊँचाई दिखाने में इन पर बाहर से अंक लिखे जाते हैं और गहराई दिखाने में मध्य में।
* पास-पास की समोच्च रेखायें तीव्र ढाल तथा दूर-दूर की मंद ढाल प्रकट करती है।
-समोच्च रेखाओं में पार्श्व चित्र द्वारा वास्तविक भू-आकृतियों को पुनः प्राप्त किया जा सकता है।
* समोच्च रेखाओं से धरातल की वास्तविक आकृति को समझा जा सकता है।
Grid Reference –
मानचित्र में Easting और Northing द्वारा किसी स्थान की स्थिति व्यक्त की जा सकती है। इसे चार, छः या आठ (Digits) में अंकित किया जाता है जैसे 1191 अथवा 118916 अथवा 11859165। छः अंकों के परिचय में पहले पश्चिम से पूर्व को तीन अंक पढ़ें जैसे 11.8 तत्पश्चात् अगले तीन अंक पढ़ें जैसे 91.6 । इस प्रकार 11.8 तथा 91.6 का कटान बिन्दु अभीष्ट स्थान होगा।
वस्तु की कोणिक दूरी (Bearing)
उत्तर-दक्षिण रेखा पर किसी वस्तु का घड़ी की सुई की दिशा में जो कोण बनता है | उसे उस वस्तु की कोणिक दूरी (Bearing) कहते है। उदाहरण के लिये किसी स्थान से किसी मन्दिर की कोणिक दूरी कम्पास से 45° आती है तो मन्दिर का बियरिंग 45° हुई।
अतः मानचित्र पर कोई वस्तु किसी स्थान से उत्तर दिशा से घड़ी की सुई की दिशा (Clockwise) में जितने अंश का कोण बनाती है वह उस वस्तु की बियरिंग कहलाती है.
फारवर्ड बियरिंग (Forward Bearing)
किसी स्थान से उत्तर दिशा से घड़ी दिशा में उस वस्तु की जो कोणिक दूरी होगी वह उस वस्तु का फारवर्ड विधान कहलायेगी।R स्थान से स्थान से मन्दिर का फारवर्ड बियरिंग 45 है।
बैक बियरिंग (Back Bearing)-
वस्तु से पूर्व की कोणिक दूरी बैक बियरिंग कहलाती है। B.B. एक प्रकार से FB. की शुद्धता ज्ञात करने के लिये प्राप्त की जाती है। उक्त उदाहरण में मन्दिर से पूर्व स्थान (A) की कोणिक दूरी 225 B.B. है।
FB.180 से कम हो तो उसमें 180° जोड़कर और 180° से अधिक हो तो उसमें से 180° घटाकर B.B. ज्ञात किया जा सकता है।
एक ट्रेल( भमण) का अनुसरण जिसमें कोण और दूरी दी गई हो-
स्काउटर/गाइडरद्वाराटोली नायको को निम्न प्रकार निर्देशित किया गया:-
(अ) दोपहर 3 बजे सभी टोलियाँ शिविर गेट पर जमा होंगी।
(ब) प्रत्येक टोला नायक अपने साथ कम्पास लेकर चलेंगे।
(स) गेट से 45° डिग्री के कोण पर 200 मीटर जंगल से होकर चलेंगे।
(द) यहाँ पहुचकर 60° डिग्री के कोण पर 400 मीटर आगे चलें वहाँ पर एक विशाल बरगद का वृक्ष मिलेगा, इस स्थान पर टोली वार एक सामूहिक देश गीत गायें।
(घ) वहां से 200° के कोण पर पगडंडी से चलें । लगभग 300 मीटर चलकर रुके। यहाँ से 320° के कोण में लगभग 500 मीटर चलें और शिविर में पहुँचें।
उक्त निर्देशों का अनुसरण करते हुए, कम्पास से कोण और कदम से दूरी का अनुमान लगाकर टोलियाँ इस ट्रेल पर आनन्द ले सकती हैं।
स्काउट में मापनी (Scale)
मानचित्र पर दो स्थानों के मध्य की दूरी और धरातल पर उन्हीं स्थानों के मध्य पर वास्तविक दूरी के अनुपात को मापनी कहते हैं। उदाहरण के लिये मापनी में किलोमीटर की दूरी को एक सेन्टीमीटर में दर्शाया गया हो।
मापनी एक ऐसी तकनीक है, जिसके द्वारा छोटे-छोटे हिस्सों को बड़े आकार में तथा बड़े-बड़े क्षेत्रों को छोटे आकार में प्रदर्शित किया जा सकता है।
मापनी के प्रकार
मापनी निम्नांकित प्रकार की होती है-
1. साधारण मापनी, 2. विकर्ण मापनी, 3. तुलनात्मक मापनी, 4. पग मापनी, 5. चक्कर मापनी, 6. समय या दूरी मापनी, 7. वर्नियर मापनी, 8. ढाल या प्रवण मापनी।
साधारण मापनी
इस मापनी में दो इकाइयाँ प्रकट की जा सकती है जैसे (1) मीटर और से.मी.(2) किलोमीटर और मीटर इत्यादि। इस मापनी का प्रदर्शन एक सरल रेखा द्वारा किया जाता है। इसलिये इसे साधारण रेखात्मक मापनी भी कहते है।
साधारण मापक प्रकट करने की तीन विधियाँ है:-
कथनात्मक विधि –
इसमें मापक की अभिव्यक्ति शब्दों द्वारा की जाती है जैसे -1 से. मी. = 5 कि. मी. अथवा 1″ = 8 मील इत्यादि।
उदाहरण – दो नगरों की वास्तविक दूरी 7 कि. मी. है जब कि मानचित्र पर इन्हें 3.5 से. मी. से प्रकट किया गया है।
3.5 से. मी. मानचित्र पर प्रदर्शित करते है, भूमि के = 7 कि. मी. से.मी.
मानचित्र पर प्रदर्शित करेंगे भूमि के.= 7/3.5 कि. मी. अतः कथनात्मक मापक होगा।। से. मी.2 कि. मी.।
प्रदर्शक भिन्न-
इस विधि में मापक का प्रदर्शन भिन्न के द्वारा किया जाता है।
धरातल के दो स्थानों के मध्य की दूरी तथा मानचित्र पर उन्हीं स्थानों के मध्य की दूरी का अनुपात भिन्न के रूप में व्यक्त किया जाता है। भिन्न का अंश मानचित्र की दूरी और हर धरातल की दूरी प्रकट करता है। जैसे 1/5000 या 1/2500 या 1/50000 इत्यादि।
उदाहरण –
दो स्थान एक दूसरे से 4.5 कि. मी. दूर है मानचित्र पर इन्हें 5 में मी. से प्रकट किया गया है। प्र.मि. ज्ञात कीजिये।
प्रदर्शन भिन्न
= मानचित्र पर दूरी/वास्तविक दूरी
=5/4.5×100000
=1/90000
रेखात्मक विधि –
इस विधि में एक निश्चित रेखा द्वारा दूरियां प्रकट की जाती है। इस रेखा दाहिनी ओर मुख्य भागों और बांयी ओर गौंण भागों को दर्शाया जाता है।
उदाहरण – दो स्थान एक दूसरे से 50 कि.मी. दूर हैं मानचित्र पर उन्हें 2 से.मी. से दर्शाया गया है। एक साधारण मापक बनाइये जिस पर 280 कि.मी. पढ़े जा सके।
हल
प्र.मि. = मानचित्र की दूरी/ वास्तविक दूरी
2.5 से. मी. (1 कि. मी. =100000 से. मी.)
= 1/2500000
चूंकि मापक के लिये लम्बाई 15 से. मी. या 6″ लगभग रखी जाती है। अतः गणना इस प्रकार होगी-
1 से. मी. मानचित्र पर प्रकट करता है धरातल के 2500000 से.मी. ।
15 से. मी. मानचित्र पर प्रकट करेंगे धरातल के
= 25 x 15 कि. मी./100000
=375 कि.मी.
375 कि.मी. का पूर्णांक में 350 कि.मी.या 400 कि.मी. मानकर गणना इस प्रकार होगी-
375 कि. मी. दर्शाते हैं =15 से. मी. को
1 कि. मी. दर्शायेगा=15 से. मी./375
400 कि.मी. दशायेगा=400×15/375 =16 से. मी.
अब 16 से. मी. की रेखा पर 400 कि. मी. दर्शाये जायेंगे। 16 से. मी. की सरल रेखा खींचकर उसके आठ बराबर भाग किये। प्रत्येक भाग 50 कि. मी. की दूरी प्रकट करेगा। बायीं तरफ के एक भाग को पुनः5 बराबर भागों में बाँट दिया। प्रत्येक भाग 10 कि.मी. प्रकट करेगा। इस प्रकार इस रेखात्मक मापनी में 280 कि.मी. की दूरी पढ़ी जा सकेगी।
मानचित्र बनाने की त्रिकोणी विधि
इस विधि में चुम्बकीय कोण (बेयरिंग) ज्ञात कर लिये जाते है और दूरी को चैन या टेप से नाप लिया जाता है। जब दिशा और दूरी ज्ञात हो जाय तो मानचित्र बनाना सरल हो जाता है।
चुम्बकीय कोण (बेयरिंग) का तात्पर्य है किसी वस्तु का चुम्बकी उत्तर से उस वस्तु का घड़ी की दिशा में बना कोण।
कम्पास भूमापन में निम्न प्रक्रिया अपनायें:-
जिस क्षेत्र का मापन करना है उसका निरीक्षण कर एक कच्चा खाका बना लें।
कम्पास को ‘अ’ स्टेशन पर सैट कर लें। उसे क्षैतिज दिशा में समतल कर लें।
‘ब’ स्थान पर रेजिंग रॉड लगायें और उसका कोण ज्ञात कर लें।
‘अ’ स्थान पर विभिन्न वस्तुओं के कोण ज्ञात कर लें।
‘अ’ और ‘ब’ की दूरी को नाप लें और उसे एलोयन करें।
‘ब’ स्थान से भी ‘अ’ से ज्ञात किये गये ऑब्जेक्ट्स के कोण ज्ञात करें। ‘ब’ के कोण बैक वियरिंग कहलायेंगे।
यही प्रक्रिया ‘स’, ‘द’ आदि से भी अपनाते चलें।
‘अ’ और ‘ब’ केन्द्रों से लिये गये कोण और बीच की दूरी को कागज पर
प्लाटिंग करें। इनसे लिये गये कोणों के कटान बिन्दु अभीष्ट वस्तु (Object) की स्थिति होगी। यह प्रक्रिया आगे के केन्द्रों से भी चलें।
जी. पी. एस. द्वारा मानचित्र मार्ग का अनुसरण करना/ वैश्विक स्थितिक व्यवस्था (Global Positioning System)
इस तंत्र का आविष्कार रोजर एल. एस्टन, इवान ए. गेटिंग और ब्रॉड फोर्ड परकिंसन तीन अमेरिकनों ने 1973 में किया, 1978 में इसे लॉन्च किया गया और 1995 से यह पूर्णतया सफलता पूर्वक कार्य करने लगा।
इस व्यवस्था में अंतरिक्ष से किसी कुशल चालक (मल्लाह, पानी के जहाज चालक, वायुयान चालक, अन्य प्रकार के वाहन चालक) द्वारा अपनी स्थिति को जानना संभव होता है। यह व्यवस्था हर मौसम में कार्यशील रहती है। इस व्यवस्था से किसी भी वाहन या व्यक्ति की स्थिति जानी जा सकती है।
इस व्यवस्था में सेटेलाइट से किसी भी स्थान का वास्तविक मानचित्र प्रसारित किया जाता है। यह एक ऐसा ऐप है जिसे कोई भी व्यक्ति अपने मोबाइल में अपनी स्थिति को जान सकता है। इसमें उत्तर दिशा, दूरी, परपंरागत चिन्ह, कन्टूर आदि को भी दर्शाया रहता है।
जी.पी.एस. मानचित्र आजकल मोबाइल में तरह-तरह के डिजिटल मानचित्र दिये गये है जो कि ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम द्वारा संचालित होते है। मोबाइल में मैप एप्लीकेशन खोलने पर वो आपकी वास्तविक स्थिति को मैप में दिखाता है तथा गंतव्य स्थान का पता डालने पर वो आपको दिशा-निदेशित भी करता है। अपने यूनिट लीडर की सहायता से जी.पी.एस. का अनुसरण करत हुए किसी गंतव्य स्थान पर पहुंचने का अभ्यास करें।
कम्पास व मानचित्र
कम्पास डिब्बीनुमा यंत्र होता है , जिस पर दिशाएं व अंश अंकित होते हैं , बीच में धूरी पर एक तीरनुमा चुम्बकीय सुई होती है ।
- कम्पास के 16 बिन्दुओं को जाने ।
साधारणत : दिशाएं चार मानी जाती हैं- पूर्व , पश्चिम , उत्तर तथा दक्षिण । परंतु किसी स्थान की ठीक – ठीक स्थिति समझने के लिये इन दिशाओं को विभाजित कर 16 दिशाओं का अध्ययन , कम्पास द्वारा किया जाता है ।
कम्पास को सैट करना
किसी कॉपी / किताब पर कम्पास को रखकर कापी को दाएं – बाएं इस प्रकार घुमाते हैं कि कम्पास में लिखा उत्तर ( 0° ) व तीर की लाल नोक एक सीध में या ऊपर नीचे आ जाएं । फिर कम्पास में पढ़कर अन्य दिशाएं ज्ञात कर सकते हैं ।
कम्पास और मानचित्र की जानकारी व सोलह दिशाओं का ज्ञान
कम्पास की जानकारी (Knowledge of Compass) कम्पास की सई सदैव उत्तर दिशा की ओर रहती है। उत्तर दिशा की सही स्थिति ध्रुव तारा है किन्तु मैग्नेटिक कम्पास की सुई ठाक ध्रुव तारे की ओर न होकर कुछ पश्चिम की ओर मुड़ी होती है। इसका कारण यह है कि उत्तरी ध्रुव स लगभग 1400 मील कनाड़ा के उत्तर में एक शक्तिशाली बिन्दु है जो मैग्नेटिक उत्तर को दर्शाता से प्रत्येक स्काउट/गाइड को दिशाओं का ज्ञान तथा सोलह दिशाओं की जानकारी होनी चाहिए। इस हेतु कम्पास एक सुलभ साधन है। चुम्बकीय कम्पास में एक सुई होती है जो स्वतंत्र रूप से धूमती रहती है। यदि किसी समतल स्थान पर कम्पास को रख दिया जाय तो यह सुई स्थिर होकर उत्तर दिशा प्रदर्शित करती है।

उत्तर तीन प्रकार के हैं-
True North (वास्तविक उत्तर) ध्रुव तारे से, ,
Magnetic North (चुम्बकीय उत्तर) कम्पास से तथा
Grid North मानचित्र से से ज्ञात किया जाता है।
सोलह दिशाओं का ज्ञान
मुख्य चार दिशायें हैं-उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम ।
दो दिशाओं के बीच की अर्द्धक लेने पर कुल आठ दिशायें बन जाती है-उत्तर, उत्तर-पूर्व, पूर्व, दक्षिण-पूर्व, दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम, पश्चिम, उत्तर-पश्चिम, इसी प्रकार उक्त आठों के बीच की अर्द्धक से कुल सोलह दिशायें बन जायेंगी। इन दिशाओं का नामकरण उत्तर और दक्षिण को प्रमुख मानकर किया जाता है।
शुद्धता की दृष्टि से उक्त दिशाओं के स्थान पर गणितीय विधि अधिक उपयोगी है। किसी एक बिन्दु पर कुल 360° के कोण होते हैं। अतः कोणिक दूरी में दिशाओं को जानने की विधि अधिक शुद्ध है।
सोलह दिशाओं के कोणिक नाम
सोलह दिशाओं के कोणिक नाम निम्नांकित हैं-
- उ.उ.पू. (NNE)322.5
- द.द.प. (SSW)-202.5
- उ.पू. (NE)3450
- द.प. (SW)-225
- पू.उ.पू. (ENE)-67.5
- प.द.प. (WSW)=247.5
- पूर्व (E)=90°
- पू.द.पू. (ESE)-112.5
- प.उ.प. (WNW)-292-5
- द.पू. (SE)-135
- पश्चिम (W)=270
- द.द.पू. (SSE)- 157.5
- दक्षिण (S)-180
- उ.प. (NW)=315
- उ.उ.प. (NNW)-337.5
- उत्तर (N)-360
इस कोणिक विधि का लाभ यह है कि इसकी सहायता से सूक्ष्म से सूक्ष्म गणना की जा सकती हैं। भौगोलिक उत्तर (True North) तथा चुम्बकीय उत्तर का अन्तर चुम्बकीय अन्तर (Magnetic Variation) कहलता है। प्रत्येक मानचित्र में यह दाया रहता है।
तारा मण्डलों द्वारा उत्तर दिशा ज्ञात करना-
रात्रि के समय आसमान के साफ रहने पर दिशाओं का ज्ञान तारों द्वारा भी सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है । ध्रुव तारा सदैव उत्तर दिशा में रहता है । अनेक तारा मण्डलों की सहायता से इसे पहचाना जा सकता है । इस प्रकार उत्तर दिशा का ज्ञान हो जाने पर हम अन्य दिशाओं को जान सकते हैं ।
इन तारा मण्डलों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है :
1.सप्तर्षि मण्डल ( Great Bear )
इस मण्डल में सात तारे होते हैं । प्रथम चार तारे एक आयत बनाते हैं और शेष तीन तारे एक कोण बनाते हैं । इनमें संख्या 1 तथा 2 की सीध में ध्रुव तारा दिखायी देता है । ध्रुव तारा सदैव उत्तर दिशा में रहता है । सप्तर्षि तारामंडल पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध (हेमीस्फ़ेयर) के आकाश में रात्रि में दिखने वाला एक तारामंडल है। इसे फाल्गुन-चैत महीने से श्रावण-भाद्र महीने तक आकाश में सात तारों के समूह के रूप में देखा जा सकता है। इसमें चार तारे चौकोर तथा तीन तिरछी रेखा में रहते हैं। इन तारों को काल्पनिक रेखाओं से मिलाने पर एक प्रश्न चिन्ह का आकार प्रतीत होता है। इन तारों के नाम प्राचीन काल के सात ऋषियों के नाम पर रखे गए हैं। ये क्रमशः क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस, वाशिष्ठ तथा मारीचि हैं।
2. लघु सप्त ऋषि मण्डल ( Little Bear )

यह भी सात तारों का एक समूह है । ये तारे पास – पास तथा छोटे होते हैं । इनमें से जो तारे वक्राकृति बनाते हैं उनका अंतिम तारा ध्रुव तारा होता है ।
ध्रुव तारा(Polaria, pole star ) * लघु सप्तर्षि मणल ध्रुव तारा (The little Dipper)
3. पांच पाण्डव मण्डल या काश्पीय मण्डल ( कैसोपिया )
लघु सप्तर्षि मण्डल के एक तरफ यह मण्डल है । जब सप्तर्षि मण्डल नीचे चला जाता है और दिखाई नहीं देता , तब पांच पाण्डव मण्डल या काश्पीय मण्डल आकाश में ऊपर आ जाता है । काश्पीय मण्डल में पांच तारे कैसोपिया अंग्रेजी के अक्षर डब्ल्यू ( W ) की शक्ल में होते हैं । ये तारे एक बड़ा और एक छोटा कोण बनाते हैं । बड़े कोण की अर्धक – रेखा ध्रुव तारे की ध्रुव तारा ओर संकेत करती है । इस मण्डल को कैसोपिया या शर्मिष्टा भी कहते हैं ।

लॉर्ड बेडन पावल ने कहा था –
* मेरे लिये हंसी की एक खुराक , दिमाग को स्नान करा देने की तरह है ।
* आलसी बालकों के लिए स्काउटिंग में कोई स्थान नहीं है ।
स्केल ( Scale ) मानचित्र पर स्थानों के बीच की दूरी और धरातल पर उन्हीं स्थानों के बीच वास्तवित दूरी के अनुपात को स्केल कहते हैं ।
दिशा ( Direction ) – मानचित्र के उपरी दाहिने शीर्ष पर तीर द्वारा उत्तर दिशा को दर्शाया जाता है । इसके आधार पर ही मानचित्र सैट किया जाता है ।
उत्तर दिशा की जानकारी (Finding the North)
स्पेन निवासी कोलम्बस भारत की खोज के लिये चला था किन्तु वह भारत न पहचकर अमेरिका पहुंच गया। ऐसा क्यों हुआ? कारण यह था कि उत्तर दिशा को दशाने वाला कोई यंत्र नहीं बना था। बाद में वास्को-डि-गामा के समय ध्रुव दशक यंत्र का आविष्कार हो चुका था। अतः वह इस यंत्र की सहायता से भारत पहुँच गया।
स्काउट गाइड उत्तर दिशा ज्ञात करने के लिये अपने पास कम्पास तो रखते ही हैं, उसके अभाव में वे अनेक विधियों से भी उत्तर दिशा ज्ञात कर लेते हैं जिनमें कुछ विधियाँ निम्नलिखित है:-
1. सूर्य की सहायता-
उदय होते सूर्य की ओर मुंह कर खड़े हों तो सामने की ओर पूर्व दिशा, पीठ पीछे पश्चिम, बायें हाथ की ओर उत्तर और दाहिने हाथ की ओर दक्षिण दिशा होगी। इसके अतिरिक्त प्रातःकाल छः बजे सूर्य पूर्व में, नौ बजे दक्षिण पूर्व में, बारह बजे दक्षिण में, सायं तीन बजे दक्षिण-पश्चिम में और छः बजे सायं पश्चिम में होता है।
2. हाथ की घड़ी से-
हाथ की घड़ी को स्थिर रखकर घंटे की सुई को सूर्य की सीध में करें। घड़ी के केन्द्र पर एक तिनका खड़ा करें। तिनके की छाया, घंटे की सुई और सूर्य जब एक सीध में हों तो बारह बजे के अंक व छाया की रेखा के मध्य की लम्ब अर्धक रेखा उत्तर दक्षिण को दर्शायेगी।
3. छाया विधि से-
समतल भूमि पर एक लाठी गाड़ दें। सूर्योदय के समय प्रातःकाल तथा सूर्यास्त पर छाया सबसे लम्बी होगी। दोपहर को सबसे छोटी होगी। सबसे छोटी छाया उत्तर दिशा को इंगित करेगी।
4. तारा समूह से-
रात्रि में उत्तर दिशा जानने के लिये सप्तऋषि मण्डल, लघुसप्तऋषि मण्डल, शिकारी (Orion) तथा कैसोपिया (Casiopia) की मदद ली जा सकती है।
सप्तऋषि मण्डल (Great Bear or Plough)-
रात्रि में सात चमकते तारों का एक समूह जो एक किसान के हल की तरह दिखता है तीन तारे वक्राकार में और चार तारे एक चतुर्भज बनाते हैं। इस चतुर्भुज के अन्तिम दो तारे पाइटर (pointer) कहलाते हैं। इन दो पाइन्टर्स की सीध में जो अकेला चमकीला तारा दिखाई देता है वो ध्रुव तारा है। ध्रुव तारा सदैव उत्तर दिशा में होता है।
लघु सप्तऋषि मण्डल (Little Bear) –
यह भी सात तारों का एक समूह है।ये तारे अधिक पास-पास तथा छोटे होत हैं तथा सप्तऋषि मण्डल की ही भांति इसका आकार होता है। किन्तु इनके तीन तारे जो वक्राकृति बनाते हैं उनका अंतिम तारा ध्रुव तारा होता है।
शिकारी (Orion)-
यह चौदह चमकीले तारों का समूह हैं जिनसे मिलकर एक शिकारी की सी आकृति बन जाती है। कमर पर पेटी सी बनाते तीन तारे तथा उस पर। तलवार सी लटकी तीन तारे, कन्धों को प्रदर्शित करते दो चमकीले तारे तथा तीन । धुंधले से तारे सिर की आकृति दर्शाते से दिखते है। तलवार के मध्य, कमर के मध्य | तथा सिर के मध्य के तारों को मिलाकर बनने वाली सीधी रेखा ध्रुव तार को दर्शाती है।
कैसोपिया-
पाँच तारे अंग्रेजी के अक्षर के आकार के है जिनसे एक संकरा । और दूसरा अधिक फैला V बनता है। अधिक फैले V के मध्य से खींची गई सीधी रेला | ध्रुव तारे को दर्शाती है।